Saturday, April 18, 2009

चार प्रकार के बल |


जीवन में सर्वांगीण उन्नति के लिए चार प्रकार के बल जरूरी हैं- शारीरिक बल, मानसिक बल, बौद्धिक बल, संगठन बल।

पहला बल है शारीरिक बल। शरीर तन्दरुस्त होना चाहिए। मोटा होना शारीरिक बल नहीं है वरन् शरीर का स्वस्थ होना शारीरिक बल है।

दूसरा बल है मानसिक बल। जरा-जरा बात में क्रोधित हो जाना, जरा-जरा बात में डर जाना, चिढ़ जाना – यह कमजोर मन की निशानी है। जरा-जरा बात में घबराना नहीं चाहिए, चिन्तित-परेशान नहीं होना चाहिए वरन् अपने मन को मजबूत बनाना चाहिए।

तीसरा बल है बुद्धिबल। शास्त्र का ज्ञान पाकर अपना, कुल का, समाज का, अपने राष्ट्र का तथा पूरी मानव-जाति का कल्याण करने की जो बुद्धि है, वही बुद्धिबल है।

शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक बल तो हो, किन्तु संगठन-बल न हो तो व्यक्ति व्यापक कार्य नहीं कर सकता। अतः जीवन में संगठन बल का होना भी आवश्यक है।

ये चारों प्रकार के बल कहाँ से आते हैं? इन सब बलों का मूल केन्द्र है आत्मा। अपना आत्मा-परमात्मा विश्व के सारे बलों का महा खजाना है। बलवानों का बल, बुद्धिमानों की बुद्धि, तेजस्वियों का तेज, योगियों का योग-सामर्थ्य सब वहीं से आते हैं।

ये चारों बल जिस परमात्मा से प्राप्त होते हैं, उस परमात्मा से प्रतिदिन प्रार्थना करनी चाहिएः

'हे भगवान ! तुझमें सब शक्तियाँ हैं। हम तेरे हैं, तू हमारा है। तू पाँच साल के ध्रुव के दिल में प्रकट हो सकता है, तू प्रह्लाद के आगे प्रकट हो सकता है.... हे परमेश्वर ! हे पांडुरंग ! तू हमारे दिल में भी प्रकट होना....'

इस प्रकार हृदयपूर्वक, प्रीतिपूर्वक व शांतभाव से प्रार्थना करते-करते प्रेम और शांति में सराबोर होते जाओ। प्रभुप्रीति और प्रभुशांति सामर्थ्य की जननी है। संयम और धैर्यपूर्वक इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर परमात्म-शांति में अपनी स्थिति बढ़ाने वाले को इस आत्म-ईश्वर की संपदा मिलती जाती है। इस प्रकार प्रार्थना करने से तुम्हारे भीतर परमात्म-शांति प्रकट होती जायेगी और परमात्म-शांति से आत्मिक शक्तियाँ प्रकट होती हैं, जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और संगठन बल को बड़ी आसानी से विकसित कर सकती है।

हे विद्यार्थियो ! तुम भी आसन-प्राणायाम आदि के द्वारा अपने तन को तन्दरुस्त रखने की कला सीख लो। जप-ध्यान आदि के द्वारा मन को मजबूत बनाने की युक्ति जान लो। संत-महापुरुषों के श्रीचरणों में आदरसहित बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करके तथा शास्त्रों का अध्ययन कर अपने बौद्धिक बल को बढ़ाने की कुंजी जान लो और आपस में संगठित होकर रहो। यदि तुम्हारे जीवन में ये चारों बल आ जायें तो फिर तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव न होगा।

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" हमारे आदर्श " पुस्तिका से ......

Monday, January 5, 2009

मोह ममता से रक्षा |

विपरीत परिस्थितियों में भगवान की कृपा के दर्शन करे बेटा अच्छा चलता है तो उतना फायदा नहीं होता जितना बेटा, पत्नी, या परिवारवाले ग़लत चलते है तो होता है अच्छा चलेंगे तो मोह-ममता में समय बीत जाएगा, बुरा चलेंगे तो वैराग्य होगा
राजा लोग देखते थे की हमारा बेटा हमारा कहना नहीं मानता...ऐसा है-वैसा है..तो दुखी होते थे फिर जब सत्संग मिलता तो समझते की भगवान की कृपा है कहना मानता तो ममता में मर जाते, नहीं मानता तो ठीक है, वैराग्य हो गया
आज के ज़माने में टी.वी, चैनलों, अखबारों और वातावरण ने बच्चे-बच्चियों का स्वभाव ऐसा बना दिया की माँ-बाप का कहना नहीं मानते, उलटा चलते है तो माँ-बाप को वैराग्य आता है पहले सत्संग से, विवेक से वैराग्य आता था, फिर लोग एकांत में चले जाते थे अब इतना विवेक-वैराग्य नहीं रहा तो भगवान गड़बड़ द्वारा वैराग्य दिलाते है की चलो, बेटों गड़बड़ करो, बेटियों गड़बड़ करो, भाइयों गड़बड़ करो ताकि संसार से वैराग्य आये
"महाभारत" में लिखा है : दो अक्षरों से बंधन है और तीन अक्षरों से मुक्ति है " मम, यह मेरा है-बेटा मेरा है, पत्नी मेरी है, धन मेरा है.....मम, अर्थात ममता से बंधन है "निर्मम" - यह मेरा नहीं है-मुक्त हो गये हम को मुक्ति चाहिये तो मुक्ति आकाश- पाताल में नहीं है ममता, आसक्ति का त्याग हो गया तो मुक्त ही है शरीर तो ऐसे भी समय पाकर मुक्त हो हो जाएगा, मर ही जायेगा मन में आसक्ति नहीं है तो दोबारा जन्मना नहीं है भगवान् का ध्यान, भजन किया, आनंद लिया तो उस आनंद में लीन होना है
-------------संत श्री आसारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित " ऋषि प्रसाद " पत्रिका से , अंक १७६, अगस्त २००७, पृष्ठ 5